उत्तराखंड

*क्यों मनाते हैं दीपावली*

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देवभूमि जे के न्यूज़-
(चारु सक्सेना-विभूति फीचर्स)

हमारे देश में दीपावली का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। सभी लोग अपनी-अपनी परम्परानुसार दीपावली मनाते हैं। सारे भारत देश में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। दशहरे से ठीक बीस दिन बाद कार्तिक माह की अमावस्या को दीपावली का मुख्य त्यौहार मनाया जाता है लेकिन दीपावली पर्व का क्रम धनतेरस से प्रारंभ हो जाता है। कार्तिक माह की त्रयोदशी तिथि धनतेरस या धन्वंतरि जयंती के रूप में मनायी जाती है। इसके अगले दिन नरक चतुर्दशी का पर्व होता है। अमावस्या को दीपावली मनाने के बाद अगले दिन प्रतिपदा को गोवर्द्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव होता है। कार्तिक शुक्ल पथ द्वितीया तिथि को यम द्वितीया कहा जाता है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त और कलम-दवात की पूजा की जाती है। पूजा के बाद बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाकर भाई दूज का पर्व मनाती हैं।
दीपावली के दिन लोग देवी महालक्ष्मी का पूजन करते हैं तथा एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं। तत्पश्चात् बालक-वृद्घ, युवक-युवतियां मिल-जुलकर पटाखें-फुलझडिय़ां-बमों आदि का आनंद उठाते हैं। चारों तरफ बमों, रॉकेटों, की आवाजें तथा फुलझड़ी पटाखों की रोशनियां बिखरती रहती हैं। मंदिरों में भी भगवान का विशेष श्रृंगार किया जाता है। दीपावली पर प्राय: सभी वर्ग के लोगों को आर्थिक लाभ भी होता है। ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसकी कुछ न कुछ खपत दीपावली पर न होती हो। दीपावली ही एकमात्र ऐसा त्यौहार है जो हमारे दो महान अवतारों राम तथा कृष्ण से जुड़ा हुआ है।
दीपावली का दूसरा दिन गोवर्धन पूजा का होता है। इस दिन गोबर से गोवर्द्धन पर्वत की अनुकृति बनाकर उसकी पूजा की जाती है। पशुओं को नहला-धुलाकर उनका श्रृंगार किया जाता है। मंदिरों में अन्नकूट मनाया जाता है जिसमें अनेक प्रकार की साग-सब्जियां एवं पकवान बनाए जाते हैं। मानव का पशुओं के प्रति प्रेम तथा करूणा प्रकट करने का यह एकमात्र त्यौहार है।
दीपावली के त्यौहार के संबंध में किवदंती है कि (1) अयोध्या के राजा राम चौदह वर्ष के लम्बे वनवास के बाद लंका के राजा रावण को मारकर अपनी पत्नी सीता तथा भ्राता लक्ष्मण के साथ इसी दिन अयोध्या वापिस लौटे थे। उनके आने की खुशी में अयोध्यावासियों ने अपने-अपने घरों को पूर्ण रूप से साफ-स्वच्छ तथा पवित्र कर रखा था। सारी अयोध्या नगरी रंग बिरंगे फूलों-पत्तियों तथा बंदनवारों से सज्जित थी। अयोध्या नगरी के समस्त घरों की मुंडेरों पर दीपकों की इतनी कतारें लगाकर रोशनी की गई थी कि अमावस्या की अंधेरी रात भी पूर्णमासी की उजली रात में बदल गई थी। ऐसा लगता था मानों देवराज इंद्र की इंद्रपुरी ही पृथ्वी पर उतर आई हो। इसीलिए हम आज भी भगवान राम की याद में इस दिन अपने-अपने घरों तथा प्रतिष्ठानों की पूर्ण सफाई करते हैं तथा सारे शहर को रोशनी से जगमग करते हैं। (2) कुछ लोगों की मान्यता है कि इसी दिन मां दुर्गा ने शुम्भ-निशुंभ नामक दो भंयकर अत्याचारी राक्षसों का वध करके लोगों को भय मुक्त किया था। (3) कुछ लोगों के अनुसार इस दिन अर्द्धरात्रि के पश्चात् धन तथा वैभव की देवी महालक्ष्मी क्षीरसागर स्थित अपने निवास से विश्व-भ्रमण करने को निकलती है तथा जो भी घर उन्हें सबसे ज्यादा सुंदर, स्वच्छ तथा पवित्र लगता है उसी पर वह अपनी विशेष कृपा दृष्टि करके उसे धन-धान्य से पूर्ण कर देती है। इन्हीं मान्यताओं के कारण हम अपने घरों तथा प्रतिष्ठानों की संपूर्ण सफाई-रंग-रोगन तथा मरम्मत आदि करते हैं तथा उन पर सजावट तथा रोशनी करते हैं तथा रात्रि को महालक्ष्मी का पूजन करते हैं।
कारण चाहे कोई भी हो यह सत्य है कि दीपावली के बहाने ही हमारे घरों तथा प्रतिष्ठानों की संपूर्ण रूप से साफ-सफाई हो जाती है। यदि दीपावली न हो तो संभवत हम कभी भी इतनी सूक्ष्मता से सफाई न कर सकें । यही नहीं सफाई के बहाने हमारे पूरे घरों तथा प्रतिष्ठानों में मौजूद सामान का भौतिक सत्यापन भी हो जाता है।
जो व्यक्तियों तथा दुकानदार दोनों के लिए लाभदायक होता है। अनुपयोगी वस्तुएं बाहर निकल जाने से जहां जगह हो जाती है वहीं अनेक गुम हुई वस्तुएं भी पुन: मिल जाती हैं। व्यापारीगण पुराने सामान को औने-पौने दामों में बेचकर लाभ कमा लेते हैं। लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस त्यौहार पर कुछ न कुछ सामान अवश्य खरीदते हैं। इससे सैकड़ों लोगों को रोजगार मिलता है।
यह त्यौहार हमें सिखाता है कि अंधकार पर सदैव प्रकाश की विजय होती है। एकता की शक्ति महान् होती है। मिल-जुलकर रहने से तथा काम करने से असंभव भी संभव हो जाता है। दीपक चाहे कितना ही नन्हा क्यों न हो। किंतु जब उनकी एक साथ कतारें लगाकर रोशनी की जाती है तो अमावस्या की घनी काली रात भी उनकी एकता के आगे हार मान लेती हैं। हम भी शिक्षा रूपी ज्ञान का दीपक जलाकर हमारे देश में फैले अशिक्षा तथा अन्धविश्वास के घने अंधेरों को दूर कर सकते हैं। यदि हम एक सौ करोड़ से अधिक लोग निहत्थे भी मिलकर एक साथ खड़े हो जायें तो किसकी मजाल है जो हमारी तरफ आंख उठाकर देखने का साहस कर सके। अत: हमें इस त्यौहार को मात्र मनोरंजन के लिए ही नहीं मनाना चाहिए अपितु एक महान् प्रेरणादायक त्यौहार के रूप में मनाना चाहिए।

*माटी के दीपक जले, अंधकार के बीच*
(डॉ. मनमोहन सिंह – विभूति फीचर्स)

दिन में तो सूर्य का प्रकाश होता था, पर रात में होता था निविड़ अंधेरा। रात में कभी कभी चंद्रमा का चढ़ता उतरता मद्घिम प्रकाश जरूर हो जाता था। आग की खोज की नहीं गई थी। जंगल में लगी आग की रोशनी से पता चला कि रात में भी उजाले में रहा जा सकता है। लकडिय़ां जलाकर प्रकाश करते वर्षों बीते। कुछ लोग पशुओं की चर्बी जलाकर उजाला करने लगे। सदियां बीत गई। सदियों बाद दिये पर बाती रखी गई, उसमें तेल डालकर जलाया गया और वह प्रकाश का संवाहक बना। लोग प्रार्थना करने लगे :-
”भो दीप त्वं ब्रह्म रूप अंधकार निवारक:।
इमां मया कृतां पूजां, गृहत्तेज प्रवर्धय।”
प्रकाश की तलाश समाप्त नहीं हुई। दिया, तेल बाती के अलावा, मोमबत्तियां, फिर खनिज तेल, खनिज तेल से जलने वाले लेम्प, और फिर गैस पेट्रोमेक्स। यह सफर बिजली की खोज के साथ ही मनुष्य समुदाय को एक चमत्कार की दुनिया में ले गया। इलेक्ट्रिक से प्रारंभ हो कर इलेक्ट्रानिक की दुनिया में पहुंच कर इसने सभ्यता और समाज में खलबली मचा दी। तेज नियॉन रोशनी, और रंग-बिरंगी झालरों में प्रकाश केे रंगों और प्रकारों का दिव्य दर्शन होने लगा। इन्द्रधनुष की बांहों से छिटक कर प्रकाश की भिन्न-भिन्न वर्तिकाएँ और किरणें अपनी छटा दिखाने लगीं।
आदमी ने आग या प्रकाश की खोज नहीं की, उसने आग और प्रकाश को समझने का प्रयास किया। यह प्रकाश विखंडित हो, ”एक्स रे” बनकर शरीर के भीतर तक पहुंच देह विद्या के प्रपंच को पढऩे वाला ”गूढग़ामी” किरण सिद्घ हुआ। अब तो मानव, किरणों के रेशों पर सवार हो गया।
प्रकाश और प्रकाश की संवेदना को आत्मसात करने वाले विद्युत प्रवाह के परिपथ बनने वाले ”कंडक्टर” तथा ”सुपर कंडक्टर” अर्थात संवाहक और ”अति संवाहक” की गतियों और स्थितियों का अध्ययन हो गया। ”पराबैंगनी” और ”इन्फ्रा रेड” जैसी किरणों के भीतर से ”लेसर” पुंज खोज निकाले गए तथा इनके विस्फोटों से जटिल समस्याओं का निदान होने लगा।
पृथ्वी और सागर की अतल गहराई, आसमान और नक्षत्रों की अरबों-खरबों मील की दूरियां, खगोल में गुम से हुए तारामंडलीय रहस्यों की परतें, परत दर परत खुलती गई। भू-गर्भ और सागरगर्भीय फासिल्स (जीवाष्म) की आयु निकाल कर आदमी अपना आदिम स्वरूप और आदिम सभ्यता का अध्ययन करने लगा। नक्षत्रों के गहरे रहस्यों को बेधता मनुष्य का अंतरिक्ष विमान अतल गहरे आकाश में मनुष्य की पारगामी क्षमता की परचम लहराने लगा।
दीप और प्रकाश, उससे उत्पन्न ऊर्जा, पता नहीं कब किस क्षण प्रोटान का विखंडन बन गयी। वहां से हिरोशिमा और नागासाकी उभर कर धुंआ-धुंआ होते रहे। लेसर किरणों से बमों की बरसात ने इराक और अफगानिस्तान को मलबों के ढेर में परिवर्तित कर अपनी मारक क्षमता को स्थापित किया। ”आर.डी.एक्स.” के रूप में आतंकवाद की भट्टियां गरमाई तथा यह साबित कर दिया कि आदमी की बनाई गगनचुंबी इमारतों को ताश के ढेर की तरह बिखेरा जा सकता है।
तुलसी के चौरे पर दीपक रख कर आंचल पसार प्रणाम कर रही ”देवी स्वरूपा” नारी की आंखों से ओंठों पर उतर रही प्रार्थना और आशीष के समन्वित लय को देखो। नदी की लहरों में हरे पत्तों के दोने पर, दीप रख, दीपदान करते हाथ और, धारा पर झिलमिलाते हजारों दीप। आसमान की ऊॅंचाइयों पर लटक रहे रंग-बिरंगे ”आकाश दीप”, पंच पल्लवों से सुसज्जित कलशों के ऊपर जल रहे ”साक्षी दीप”, मंदिरों की देव प्रतिमाओं के अखंड स्वरूप ”अखंड ज्योति”। अनुष्ठानों, दानों, सम्मानों को अभिभूत करने वाले आरती और पूजा के दीप।
ये दीप ही तो है जो हमारी मन की भावनाओं की अभिव्यक्तियां, हमारे संकल्पों के स्वरूप, मनोकामनाओं के कलश और शुभेच्छाओं के प्रकाशित स्तंभ बनते है।
ये दीप सिर्फ प्रकाश ही नहीं है। ये दीप सिर्फ दिया, तेल, बाती ही नहीं है। इनको जलाना ही आसान नहीं है, पर जलने के बाद उसे बनाए रखना भी दुष्कर है।
*”परम प्रकाश रूप दिन राती*
*नहिं कछु चहिअ दिया घृत बाती”*
जिसके जलने से :-
*”मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।*
*लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥*
*प्रबल अविद्या तम मिट जाई।*
*हारहिं सकल सलभ समुदाई॥*
*खल कामादि निकट नहिं जाहीं।”* (राम चरित मानस)
मानस कथाकार ने रामभक्ति के दीप का वर्णन किया है। भीतर के इस प्रकाश से, इन्द्रिय जनित मनोरोगों का नाश होता है। रामभक्ति के शांतदीप के सामने ज्ञान दीप का प्रचंड प्रकाश असमर्थ और धराशायी होने वाला प्रकाश है। बड़ा कठिन है इसे जलाना :-
”तीन अवस्था तीन गुन
तेहि कपास ते काढ़ि
तूल तुरीय संवारि पुनी
बाती करै सुगाढ़ि”
इस बाती को –
”चित्त दिया भरि धरै दृढ़
समता दिअटि बनाई”
”एहि बिधि लेसै दीप,
तेज राशि विज्ञानभय
जातहिं जासु समीप
जरहिं मदादिक सलभ सब”
मद मोह आदि कीट पतंगे ऐसे विज्ञान मय तेज राशि, से जलने वाले दिए में जल कर खाक हो जाते हैं। आत्मा प्रकाश के सुख का अनुभव करती है। बुद्घि के प्रकाश से कुंठाएँ ढीली होकर नष्ट होती है। मान-सम्मान पाकर बुद्घि भ्रमित होने लगती हैं। इन्द्रियों के झरोखे खुल जाते हैं। विषय वासना की तेज बयार भीतर प्रवेश करती है।
*जब सो प्रभंजन उर गृह जाई,*
*तबहि दीप बिज्ञान बुझाई।*
ज्ञान का दीप ”विषय समीर बुद्घि कृत मोरी” होकर बुझ जाता है। मनुष्य फिर व्याकुल हो छटपटाने लगता है।
-”तमसो मा ज्योतिर्गमय”
-”तुम मेरे पीछे आओगे तो अंधेरे में नहीं चलोगे”
ये प्रकाश स्तंभ हैं, इनके पीछे चलने वाले अंधेरे में नहीं रहते। परंतु यह प्रकाश है क्या?
भीतर का प्रकाश और बाहर का प्रकाश, दोनों क्या अलग-अलग हैं?
आज दीपावली है। मिट्टी के दिये हैं। हजारों लाखों की संख्या में दीपमालिका सजी है। अंधेरे के साथ वह कुछ गा रही है।
”देते हैं, उजाले, मेरे सजदों की गवाही,
मैं छुप के अंधेरों में इबादत नहीं करता।”
कभी-कभी देखते हैं, वही दिया है, वही बाती है, लबालब तेल भरा है, हवा का झोंका आया और दिया बुझ गया। रह गई मलिन हुई बाती, आलोक कहीं चला गया।
”गत एव न ते निवर्तते
सखादीप इवानिलाहत:
अहमस्य दशेव पश्य माम्
विषह्यï व्यसन प्रधूमितान”
(कुमार सम्भव)
दीपावली का यह दिन, हर साल आता है। लोग दीप जलाते हैं और पूजा लक्ष्मी जी की करते हैं। आज का समय कई अर्थों में कंगाल है। अशिक्षा का पसरा हुआ अंधेरा लगातार गहराता जा रहा है। एक अरब की संख्या को पार करने के बाद आदमी ”मानव संसाधन” घोषित हो गया है। उपभोक्तावादी समाज के शब्द कोष में मनुष्य और उसके हाथों के श्रम को संसाधन के रूप में देखा जा रहा है।
”रात दीप धर हंस रही,
मोती झरते थाल।
जगमग रूप निहारता,
समय खड़ा कंगाल।”
इस वर्ष दीपावली, पिछली दीपावलियों से किन अर्थों में भिन्न होगी। शायद यह सोचने का विषय हो, पर लगता है कि गरीबी की ओर हमारे कदम कुछ और आगे चले जायेंगे। गरीबी और कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्यायें हमें झकझोर नहीं पा रही हैं।
किसानों को सबसिडी मिले या न मिले, यह तय करने का दायित्व विश्व बैंक और उसके नियंत्रकों की इच्छा पर निर्भर है। सूखे और बाढ़ की चपेट में किसी तरह उपजाई गई फसल की खरीदी दर क्या हो, यह सरकार ही तय करेगी। सरकारी दर पर समय में फसल न बिके तो किसान फसलों पर आग लगाकर आत्महत्यायें करेंगे।
जिस देश में लक्ष्मीनारायण की पूजा होती हो। जहां धनतेरस और दीपावली में सिर्फ लक्ष्मी की आराधना होती हो। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी देश में ”अन्नपूर्णा” का सेवक गांव का किसान भूखा और कंगाल होकर आत्महत्यायें करे।
लक्ष्मीजी के आगमन के स्वागत में बिजली के रंग बिरंगे झालर जल बुझ रहे हैं। दुकानों और उपहारों के ढेर के पीछे मैं खड़ा होकर अपनी खाली जेबें टटोलता हूं। बाजार ने हमें बेतहाशा खोखला और कंगाल कर दिया है।
ढेर सारे ऐसे भी चेहरे हैं जिन पर कर्ज में ली गई प्रसन्नता और किश्तों में खंडित मुस्कान हैं। आनेवाले बीस-तीस वर्षो का भविष्य किन्हीं वित्तीय संस्था के पास गिरवी रखकर ओढ़ी हुई उधार की सम्पन्नता की मस्ती में डूबे ये लोग, कर्ज का भार बढ़ जाता है तो सपरिवार आत्महत्या कर लेते हैं। उपभोक्तावादी समाज ने जीवन की उधार शैली विकसित की और लोग उसकी चकाचौंध में फंसे हुये हैं।
बाजार में सारी चीजें किश्त और उधार में उपलब्ध हैं।
चार्वाक के वंशज बड़े प्रसन्न हैं:-
”यावत् जिवेत् सुसुखं जिवेत्
ऋणं कृत्वा घृतंपिबेत्”
ऋण से सुख की तलाश के भ्रम बांटते रंगीन विज्ञापनों के बीच मन कुलांचे भर रहा है। दिये जल रहे हैं, पर उसके नीचे कर्ज का अंधेरा पसरा है। शायद दिये इसलिये उदास हैं – *”माटी का दीपक जले अंधकार के बीच।*
*किरणें दोनों हाथ से सपने रही उलीच।।”* *(विभूति फीचर्स)*

वीर निर्वाण संवत 2552
*महावीर स्वामी का मोक्ष प्रदाता ज्योति पर्व दीपावली*

(इंजी. अरुण कुमार जैन-विभूति फीचर्स)

दीपावली पर्व का नाम आते ही संपूर्ण विश्व के भारतीयों और उनके अपनों के मन में प्रेम, हर्ष उल्लास व उमंग के भाव स्वतः इंद्रधनुष से आकर लेने लगते हैं। घरों की पुताई, सफाई,दीवारों पर आलेखन, गाँव में पुराने घरों की गोबर से लिपाई,पोतनी से सुंदर ढिक बनाना, दीवारों पर सुंदर-सुंदर आकृतियां,नए वस्त्र, पूजन,खील बतासे, मिठाइयां, सभी अपनों के घर जाना, दीप जलाना,एक दूसरे को बधाई देना सब कुछ अनुरागी लगता है।
विश्व के जैन संप्रदाय में इन सब के साथ जुड़ जाता है,उषा काल के समय जिन मंदिर में जाकर तीर्थंकर महावीर की मूर्ति के समक्ष पूजन करना, निर्वाण कांड पढ़ना, प्रभु को निर्वाण लाडू अर्पित करना, साथ ही अपने घरों, कार्यालयों या व्यापारिक प्रतिष्ठानों में दीप जलाकर तीर्थंकर महावीर के प्रधान गणधर श्री गौतम स्वामी जी को कैवल्य ज्ञान मिलने के उपलक्ष्य में दीप जलाकर हर्ष की अभिव्यक्ति करना।
हम भारतीय भगवान राम के वनवास से अयोध्या वापिस आगमन के उपलक्ष्य में व तीर्थंकर महावीर के मोक्ष कल्याण,उनके प्रधान गणधर पूज्य श्री गौतम स्वामी को कैवल्य ज्ञान मिलने के हर्ष की अभिव्यक्ति के रूप में दीपावली पर्व मानते हैं।
तीर्थंकर महावीर जिनका जन्म आज से 2624 वर्ष पूर्व उत्तरी बिहार के वैशाली प्रान्त के कुंडलपुर राज्य में राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के घर में हुआ था। उनके जन्म के 15 माह पूर्व से ही, राजा सिद्धार्थ के महलों में रत्नों की वर्षा होने लगी थी। मां त्रिशला ने गर्भधारण के पूर्व 16 स्वप्न देखे, जिनका फल राजा सिद्धार्थ ने बताया कि उनके यहां जन्म लेने वाला पुत्र सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न,धीर, गंभीर तो होगा ही अपने असीम तप से मोक्ष पद को प्राप्त कर संपूर्ण मानवता को सत्य, अहिंसा, तप, त्याग, अपरिग्रह से विश्व विजय, असीम शांति व सच्चे सुख पाने का पथ भी प्रशस्त करेगा।
वर्द्धमान महावीर एक श्रेष्ठ राजकुमार की तरह सभी गुणों से युक्त थे, असीम वैभव के बीच भी उन्हें लगा कि सच्चा सुख सिर्फ साधना सेवा,अपरिग्रह में है। तब मात्र 32 वर्ष की युवावस्था में वे गृह त्याग करके दिगंबर संत बन गए। उन्होने लगातार 12 वर्ष तक सारे देश में कठिन तपस्या की,वे जंगलों, श्मशानों में हिंसक पशुओं के मध्य निडरता से अकेले भ्रमण करते रहे।
12 वर्ष के तपस्या काल में उन्होंने मात्र 365 दिन भोजन ग्रहण किया,यानि कि हर बारहवें दिन भोजन, यानि 11 दिन तक पानी भी नहीं पिया। त्याग, तपस्या, साधना, करुणा के माध्यम से जन-जन को दुनिया भर के दुखों से सहज़ ही मुक्ति पाने का पथ वीर प्रभु ने बताया।
उनके तपस्या काल में उनका साक्षात्कार हिंसक सिंह,चीते,अजगर, डाकू लुटेरे, शिकारी और दानवों से निरंतर हुआ, उनके महान व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सभी हिंसक दुराचारियों ने अपनी व्यसनों को त्यागा व वे श्रेष्ठ प्राणी बन गए। उनके तपस चरण काल के ऐसे हजारों प्रेरक संस्मरण हमें विभिन्न पुराणों में मिलते हैं।
कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के पश्चात राजगृही के विपुला चल पर्वत पर भगवान की प्रथम समोसारण सभा आयोजित हुई। इसको इंद्र के आदेश से कुबेर ने असीम वैभव से सुसज्जित किया,समवसरण में सारी सृष्टि के जीव धारी उपस्थित थे।
लंबे समय तक मौन रहने के पश्चात उनके प्रथम श्रेष्ठ शिष्य गौतम गणधर स्वामी के आने से ही उनकी विश्व कल्याणी दिव्य वाणी विस्तारित हुई। कहते हैं उनकी देशना विश्व के सभी प्राणी अपनी अपनी भाषा में सहज जान लेते थे।
अगले 30 वर्षों तक वीर प्रभु ने समग्र मानवता को जैन दर्शन के पावन उपदेशों से लाभान्वित किया व सबके कल्याण का पथ बताया।
कार्तिक बदी अमावस्या के दिन आज से 2552 वर्ष पूर्व उनको मोक्ष पद मिला। जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर वे सिद्ध शिला पर प्रतिष्ठित हो गए जो हर प्राणी का अंतिम लक्ष्य है।
गौतम गणधर स्वामी को जब प्रभु के मोक्ष गमन का समाचार मिला तो वह शोकाकुल हो गए,30 वर्ष तक प्रभु की छाया सदृश्य रहने वाले उनके अनुरागी शिष्य को, प्रभुवाणी सुनाई पडी, “प्रिय गौतम, शोक व मोह दोनों ही त्याज्य हैं, मैं तो सदैव तुम्हारे साथ हूं, एक पथ प्रदर्शक की तरह।” तब गौतम स्वामी मोह मूर्च्छा से निकले और उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई जो मोक्ष महल जाने का सोपान है।
पावापुरी बिहार में प्रभु का अंतिम संस्कार किया गया, उनके लाखों भक्तों ने उस स्थान की पावन धूल को अपने दिव्य पवित्र स्थान में ले जाने के लिए एकत्र किया, फल स्वरुप उनके अंतिम संस्कार स्थल पर एक विशाल सरोवर स्वत: बन गया,जहां वर्ष भर सुंदर लाल कमल खिले रहते हैं। वहीं सरोवर के मध्य में एक भव्य मंदिर में प्रभु के चरण स्थापित कर जन-जन का पूज्य तीर्थ स्थल बन गया। आज भी दीपावली के दिन हजारों लाखों भक्त उषा बेला में पावापुरी में जाकर प्रभु के चरणों में निर्वाण लाडू अर्पित कर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
राजस्थान में भी श्री महावीर जी में एक ऐसा अनुपम तीर्थ स्थल है जहां खेत में टीले से निकली भगवान महावीर की चमत्कारी मूर्ति सैकड़ों सालों से स्थापित है, जिसके दर्शन मात्र से ही असीम शांति व आनंद की प्राप्ति होती है, व मन के सारे कलुष, विकार, अवसाद स्वतः समाप्त हो जाते हैं। यहाँ लाखों तीर्थयात्री हर वर्ष दर्शन करने आते हैं।
भगवान महावीर जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर है, जिनका जीवन स्वयं प्रेरक व पथ प्रदर्शक है। एक वस्त्र भी उनकी देह पर नहीं रहा, भीषण गर्मी भयंकर शीत या घनघोर वर्षा , कैसा भी मौसम हो वे सदैव दिगंबर मुद्रा में रहे, सहज रहे, चलते रहे, नंगे पांव।
भोजन लेने के लिए पाणीपात्र ही माध्यम था, खड़े होकर आहार लेना वह भी तब,जब बनाने वाले पूर्ण शुद्ध तरीके से भोजन बनाएं व अपने द्वार पर आकर भक्तिपूर्वक उन्हें आमंत्रित करें, साथ ही उनके मन में ली गई प्रतिज्ञा भी पूरी हो। बालों को भी अपने दोनों हाथों से उखाड़ने वाले महावीर के अनुयाई संत आज भी उनके जीवन दर्शन को अपनाते हैं। जीवन भर, एक स्थान से दूसरे स्थान चलते जाना, किसी आश्रम विशेष के प्रति मोह उत्पन्न नहीं करता। धरा का हर स्थल उन्हें अनुरागी है व संसार के सभी प्राणी उनके लिए प्रिय हैं।
दीपावली के पावन दिन पर उषा बेला में प्रभु के श्री चरणों में अपनी श्रद्धा निर्वाण लाडू चढ़ाकर व दीप जलाकर व्यक्त की जाती है। कार्तिक वदी अमावस्या की शाम सभी अपने स्थान पर दीपक जलाकर पूज्य गौतम स्वामी जी के कैवल्य ज्ञान प्राप्ति का आनंद मनाते हैं। विश्व भर में सभी जैन अनुयाई दीपावली पर्व मानते हैं, जैन पटाखे नहीं फोड़ते, बम नहीं दागते ताकि छोटे छोटे जंतुओं, प्राणियों के जीवन की रक्षा की जा सके।
यह पर्व विश्व भर में विश्व भर के लोगों के द्वारा भी मनाया जाता है क्योंकि इसमें प्रेम है, अनुराग है, स्नेह है करुणा है, सेवा है, मैत्री है वात्सल्य है, व विश्व बंधुत्व भी समाहित है।
संसार भर में असीम आलोक सदैव प्रसारित रहे व हर प्राणी के मन सदैव आलोकित रहें, सभी के मन से भय, वेदना, आशंका क्रोध, काम,हिंसा, प्रतिशोध का तिमिर समाप्त हो व नेह, प्रेम, सेवा, करुणा, मैत्री मुदिता, सहयोग की दिव्य ज्योति प्रज्ज्वलित रहे, इसी कामना के साथ ज्योति पर्व की हार्दिक बधाइयां। *(विभूति फीचर्स)*

*दीपावली पर विशेष स्नान का महत्व*
(आचार्य पं. रामचन्द्र शर्मा ”वैदिक”-विभूति फीचर्स)

दीपावली पर्व पर श्री एवं समृद्घि प्राप्ति हेतु पुराणादि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में पूजा पूर्व विशेष स्नानों का उल्लेख प्राप्त होता है। अग्निपुराण में राजाओं को विजय तथा समृद्घि प्राप्ति हेतु माहेश्वर स्नानों का विस्तृत वर्णन मिलता है इन स्नानों के प्रणेता आचार्य शुक्राचार्य थे। सर्वप्रथम यह स्नान उन्होंने दानवेन्द्र राजा बलि को करवाया था। चूंकि अब राजा व राजतंत्र दोनों ही नहीं रहे किंतु अग्रिपुराण, पदम्-पुराण, भविष्योत्तर-पुराण एवं धर्मशास्त्रों में लक्ष्मी एवं आरोग्य प्राप्ति हेतु सामान्य प्रजाजनों के लिए दीपावली महापर्व के उपलक्ष्य में विशेष स्नानों की व्यवस्था मिलती है।
सामान्यत: स्नान करने की सात विधियां प्रचलित हैं, मंत्र स्नान, भौमस्नान, अग्निस्नान, वायव्यस्नान, दिव्यस्नान, वारूणस्नान और मंगलस्नान आदि। मंत्रों के द्वारा मार्जन करना मंत्रस्नान, विशेष प्रकार की मिट्टी लगाकर स्नान करना मृत्तिका (भौम) स्नान, भस्म (भभूति-राख) लगाकर स्नान करना भस्म-अग्निस्नान, गाय के खुर की धूल लगाकर स्नान करना वायव्यस्नान, सूर्यकिरण में वर्षा के जल से स्नान करना दिव्यस्नान, पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर स्नान करना वारूणस्नान और मंगल अवसरों, त्यौहार आदि में निश्चित विधि अभ्यंग आदि से स्नान करना मंगलस्नान की श्रेणी में आता है। स्नान विधि के पश्चात् ही हम पूजा-अर्चना के योग्य बनते हैं। स्नानकर्म से दृष्ट एवं अदृष्ट शारीरिक शुद्घि, तथा पापनाश के साथ ही पुण्य की प्राप्ति होती है। संक्षेप में सामान्य रूप से स्नान कर्म से रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, दु:स्वप्ननाश, तप और मेघा इन दस गुणों की प्राप्ति होती है- *गुण दश स्नान-परस्यसाधौ, रूपंचतेजश्च बलं च शौर्यम्। आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दु:स्वप्ननाशश्च तपश्च मेघा:॥*
चतुर्दशी (रूपचौदस) से कार्तिक-शुक्ल प्रतिपदा इन तीनों दिनों के संयोग को दीपावली कौमुदी-उत्सव की संज्ञा प्राप्त है। इन दिनों प्रात:काल सतैल (अभ्यंगस्नान) का पुराण एवं धर्मशास्त्रों में बड़ा महत्व है। अभ्यंगस्नान से धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। चतुर्दशी (रूपचौदस) को नरक से बचने तथा धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु तेल मालिश कर पवित्र जल से स्नान करना चाहिए एवं सिर पर अपामार्ग की टहनियों को घुमाना चाहिए इससे कष्टों का नाश होता है। वास्तव में नरक-चतुर्दशी जिसे रूपचौदस के नाम से भी जाना जाता है, नरक से बचने के लिए यम को प्रसन्न करने का पर्व है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण व श्रीमद्भागवत् में नरकासुर की लूट खसोट एवं उपद्रवों का वर्णन है कि नरकासुर ने देवमाता अदिति के गहने छीन लिये, वरूण को छत्र से वंचित कर दिया, मंदारपर्वत के मणिपर्वत शिखर को छीन लिया, देवताओं-सिद्घों व राजाओं की सोलह हजार कन्याओं का हरण कर उन्हें बंदी बना लिया ऐसे आततायी नरकासुर अर्थात् नरक से बचने के लिए शास्त्रों ने अभ्यंगस्नान की व्यवस्था की है जो शास्त्रीय एवं प्रामाणिक होने के साथ-साथ विज्ञानसम्मत भी है।
पद्मपुराण में उल्लेख है कि दीपावली की चतुर्दशी तिथि में तिल में लक्ष्मी तथा सामान्य जल में भी गंगा प्राप्त होती है, अत: दीपावली के उपलक्ष्य में चौदस को प्रात:काल अभ्यंगस्नान करने से यमलोक नहीं देखना पड़ता है और नरक का नाश होता है- *तैले लक्ष्मीर्जले गंगा दीपावल्याश्चतुर्दशीम्। प्रात:तुय:कुर्याद् यमलोकं न पश्यति॥* दक्षिण भारत में चतुर्दशी को अभ्यंगस्नान करने के बाद कारीट नामक कड़वा फल पैर से कुचलने की प्रथा आज भी प्रचलित है जो नरकासुर के नाश का प्रतीक है। दीपावली पर्व के उपलक्ष में लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति हेतु निम्नांकित स्नानों में से कोई भी एक स्नान कर सहजता से धन समृृद्घि की वृद्घि के साथ श्री प्राप्त की जा सकती है।
(1) दीपावली को प्रात:काल सूर्योदय के पूर्व अभ्यंगस्नान करने से धन समृद्घि की वृद्घि होती है एवं दरिद्रता का नाश होता है।
(2) दीपावली पर्व के उपलक्ष में पंचत्वचा (छाल)-बरगद, गूलर, पीपल, आम और पाकड़़ की छाल को पानी में उबालकर स्नान करने से लक्ष्मी से कभी वियोग नहीं होता है।
(3) गाय के गोबर को पवित्र जल से स्पर्श कराकर गौमयस्नान से धन व लक्ष्मी की अभिवृद्घि होती है।
(4) दुग्धस्नान करने से शक्ति एवं बल की वृद्घि होती है।
(5) दधिस्नान करने से सम्पत्ति बढ़ती है।
(6) घृतस्नान करने से आयु, आरोग्य एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
(7) शतमूल या शतावरी की जड़ से सिद्घ जलस्नान कामनापूर्ति में सहायक होता है।
(8) पलाश, बिल्वपत्र, कमल एवं कुशा से सिद्घ जल स्नान लक्ष्मी प्राप्ति की अचूक साधन है।
(9) रत्नस्नान करने से आभूषणों की प्राप्ति होती है।
(10) तिलस्नान करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
(11) धातृपलस्नान करने से लक्ष्मी सहजता से प्राप्त होती है।
इन स्नानों के साथ ही दीपावली के मंगल पर्व पर लक्ष्मी प्राप्ति श्री एवं समृद्घि हेतु शहद, गन्ने का रस तथा दुग्धमिश्रित त्रिमधुर स्नान सौभाग्यवर्धक होता है। अत: लक्ष्मी पूजा प्रारंभ करने के पूर्व प्रात:काल उपुर्यक्त स्नान विधियों में से कोई भी स्नान का सुविधापूर्वक चयन कर श्री एवं समृद्घि सरलता से प्राप्त की जा सकती है। निर्णयसिन्धु में वर्णन है कि- *वत्सरादौ बलिराज्ये तथैव च। तैलाभ्यंगम् कुर्वाणों नरकं प्रतिपद्यतें।*
दीपावली के साथ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा वर्ष की अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है अत: चतुर्दशी, दीपावली एवं प्रतिपदा को अभ्यंगस्नान करने से नरक अर्थात् कष्टों का नाश होता है एव धन व समृद्घि की वृद्घि होती है। संक्षेप में कौमुदी-उत्सव (दीपावली) में अभ्यंग अर्थात् मंगलस्नान करने से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। *(विभूति फीचर्स)*

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