उत्तराखंडधर्म-कर्म

*जातिव्यवस्था ईश्वर प्रदत्त अथवा मनुष्य निर्मित एक विश्लेषण।*

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देवभूमि जे के न्यूज़-(जय कुमार तिवारी) –

आजकल सनातन धर्म संस्कृति एवं परम्परा के विषय में आए दिन कुछ न कुछ बोला और लिखा जा रहा है चुकीं ऐसा इसीलिए हो रहा है कि हमारे यहां अभिव्यक्ति की आजादी है, किसी की समाज या व्यक्ति पर कुछ भी आरोप प्रत्यारोप की खुली छूट है। ऐसा इसीलिए कह रहा हूं कि जब से संविधान आया है तब से बहुत कुछ परिवर्तन हुए इसमें कुछ समाजहित भी हैं। आजकल किसी को कुछ भी बोलकर सोशल मीडिया पर बने रहने की एक बुरी आदत लग रही है उसी क्रम में कुछ प्रतिष्ठित दायित्वों पर आसीन लोगों द्वारा जाति व्यवस्था पर लगातार बोलकर समाज को दिग्भ्रमित करने का षडयंत्र किया जा रहा है जिसका दूरगामी परिणाम बहुत ही दुखदायी है। तो आइए इसे हम केवल आध्यात्मिक, सांस्कृतिक ढंग से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक एवं तर्क की कसौटी पर आधारित परम्परा प्राप्त इस जातिगत व्यवस्था के विषय पर संवादात्मक व प्रश्नगत ढंग से विचार करते है ताकि समाज को इस विषय की सही जानकारी मिल सके नहीं तो जिसको जो मन में आयेगा वही बोलेगा यदि हमें सही जानकारी होगी तो ऐसे तथाकथित भड़काने वाले लोगों का विरोध करके सही जानकारी से समाज को अवगत करवाएंगे ताकि भविष्य में सनातन धर्म, संस्कृति एवं परम्परा के विषय में कुछ भी बोलने से पहले लोग सही से सनातन को समझकर बोलेंगे।
लगातार समाज में एक वर्ग विषय के प्रति फैलाई जा रही दुर्भावना के प्रति स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस महत्वपूर्ण एवं समसामयिक चिन्तन दृष्टि से तथ्यपरक लेख लिखने की आवश्यकता हुई। तो आइए जानते है क्या है जातिव्यवस्था ? प्रश्न है, जातिव्यवस्था मनुष्य के द्वारा बनाई गयी है या ईश्वर के द्वारा ? उत्तर आता है, निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा बनाई गयी है !
दूसरा प्रश्न है क्या इसे तर्क के द्वारा समझा सकते है ?
उत्तर है हां क्यों नहीं बिल्कुल समझा सकता हूँ !
प्रश्नकर्ता लेकिन न तो मुझे संस्कृत का ज्ञान है और ना ही मैं शास्त्रों का ज्ञाता हूं, हा अंग्रेजी से मैंने एम.ए .किया है ! उत्तर, कोई बात नहीं संस्कृत या शास्त्रों का ज्ञान नहीं होगा चलेगा किन्तु कॉमनसेंस होना जरुरी है! पुनः प्रश्नकर्ता जी वो तो है ! उत्तर अब हम मुख्य विषय की शुरुआत करते है, कृपया बताए कि इस पृथ्वी पर कितने प्रकार के जीव रहते है? प्रश्नकर्ता, मनुष्य, पशु,पक्षी, जलचर, पेड़, पौधे इत्यादि ! उत्तर, बिल्कुल सही अब एक बात बताएं पशु कहने से सभी पशु शेर हो गए क्या, पक्षी कहने से सभी पक्षी तोता हो गए क्या, जलचर कहने से सभी शार्क मछली हो गए क्या, पेड़ कहने से सभी आम हो गए क्या? प्रश्नकर्ता नहीं, शेर जानवरों की जाति है, तोता पक्षियों की जाति है और आम पेड़ की जाति है ! उत्तर तो क्या इन्हें मनुष्य ने बनाया है?
प्रश्नकर्ता, नहीं ये तो ईश्वर की बनाई व्यवस्था है। उत्तर, ठीक उसी प्रकार मनुष्य कहने से सभी ब्राह्मण हो गए क्या? नहीं, ये तो मनुष्यों की जाति व्यवस्था है जो की ईश्वर द्वारा बनाई गयी है, जैसे जानवर शब्द से हजारों जानवरों का होना समझा जाता हैं, पक्षी शब्द से हजारों प्रकार के पक्षी होने का बोध होता हैं, फल शब्द से हजारों प्रकार के फलों का होना सुनिश्चित होता है उसी प्रकार मनुष्य शब्द से हजारों प्रकार के मनुष्यों का होना सिद्ध होता है साथ ही साथ इन सभी की जाति के साथ साथ प्रजाति का होना भी पाया जाता है! और सुनो जातिव्यवस्था केवल मनुष्य के लिए ही नहीं अपितु यह संसार अनेक प्रकार की विविधताओं से भरा पड़ा है! आप स्वयं देखिये आम की कितनी प्रजातिया होती है, नीम की कितनी प्रजाति होती है, शेर की जाति प्रजाति, बन्दर, घोडा, तोता, सर्प, गेंहू, चना, चावल इत्यादि! अतः अब आप ही बताए कि इसमें मनुष्य द्वारा जातिव्यवस्था का निर्धारण करना कहा सिद्ध होता है!
प्रश्नकर्ता, मै आपकी बात से सहमत हूँ कृपया आप जातिव्यवस्था के विज्ञान को सरल भाषा में विस्तार से समझाने का कष्ट करे ! उत्तर, ब्रम्हाजी ने स्रष्टि रचना के समय अपने मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न किया, भुजाओं से क्षत्रियों को उत्पन्न किया, अपने उदर से वैश्यों को प्रकट किया तथा अपने चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति की अर्थात मुख से मेधाशक्ति, भुजाओं से रक्षाशक्ति, उदर से अर्थशक्ति एवं चरणों से श्रमशक्ति को उत्पन्न किया, इसका अर्थ यह हुआ की ब्राह्मणों के पास जो शक्ति है उसका सम्बन्ध सिर से है यानि ब्राह्मण के पास देखने, सुनने, बोलने, बताने, सूंघने तथा किसी को भी खा जाने की शक्ति होती है। प्राचीन काल में किसी भी राज्य में जो राजा होते थे वे अपने मार्गदर्शक के रूप में किसी ब्राह्मण को जरुर नियुक्त करता था तथा उन्हीं के परामर्श से अपनी प्रजा का पालन करता था क्योकि वे जानते थे की मेरे पास शक्ति तो है ज्ञान नहीं, क्षत्रियों को भुजाओं से उत्पन्न किया तो स्वाभाविक है कि उनके पास भुजाओं का बल अत्यधिक पाया जाता है और किसी भी राज्य की रक्षा का दायित्व क्षत्रियों का होता है, उसी प्रकार वैश्यों की उत्पत्ति उदर से हुई तो उनके पास संग्रह तथा वितरण की कुशलता पाई जाती हैं यही उसकी शक्ति का आधार है, ठीक उसी प्रकार शूद्रों को पैरो से उत्पन्न किया यानी शूद्रों के पास श्रम शक्ति होती जो श्रम वे कर सकते है वह अन्य कोई वर्ण या जाती का व्यक्ति नहीं कर सकता इसीलिए शास्त्र वचन भी है सभी की धर्म सिद्धि का मूल सेवा है। सेवा किये बिना किसी का भी धर्म सिद्ध नहीं होता अतः सभी धर्मो में आधारभूत सेवा ही धर्म है, इसीलिए इस दृष्टि से विचार करें तो शुद्र अन्य वर्णों में महान है।
ब्राह्मण का धर्म मोक्ष के लिए अनवरत चिन्तन है, क्षत्रिय का धर्म भोग के लिए, वैश्य का धर्म अर्थ के लिए है और शुद्र का धर्म, कर्म के लिए है, इस प्रकार अन्य तीन वर्णों के धर्म अन्य तीन पुरषार्थ के लिए है किन्तु शुद्र का धर्म स्वपुरषार्थ के लिए है अतः इसकी वृति से ही भगवान प्रसन्न हो जाते है अस्तु अब आगे सुनिए यह जो ब्रम्हाजी की स्रष्टि है यह भगवान का शरीर ही है इसी में सारा ब्रम्हाण्ड समाया हुआ है। सभी लोक इसी शरीर में है! यह विराट शरीर ही हमारा संसार है! अब आप बताइए की किस किस अंग से कौन सा कार्य होता है, सिर का कार्य हाथों द्वारा संभव है, नहीं। हाथों का कार्य उदर द्वारा संभव है, नहीं। उदर का कार्य पैरों द्वारा संभव है, नहीं।
अब आप विचार करें कि आजकल तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों के कहने पर जातिगत व्यवस्था को कदाचित भंग कर दिया जाए तो क्या स्थिति उत्पन्न होगी विचार कीजिए, अब विचार ही क्यों करना है देख ही लीजिए वर्तमान में जो शिक्षा पद्धति व जीविका पद्धति हमारे ऊपर थोपी गयी है उसका परिणाम क्या हो रहा है वर्णसंकरता, कर्मसंकरता और ऊपर से आरक्षण हमारे यहाँ कभी भी किसी के लिए भी रोजी रोटी का संकट था क्या? कभी नहीं प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति तथा वर्ण के अनुसार अपना जीवन यापन करता था ! कोई भी किसी के कर्म का अतिक्रमण नहीं कर सकता था अपितु एक दूसरे के सामंजस्य से सभी कार्य होते थे। कोई भी समाज अपने को हिन नहीं समझता था ! प्रत्येक समाज अपनी जाति पर गर्व महसूस करता था क्योकि वो जानते थे की जो गुण योग्यता उनमे है वह अन्य के पास नहीं है यह ईश्वर का उस समाज के लिए वरदान हुआ या नहीं ? अब हम आपको दूसरे रूप में बताने का प्रयास करते है, कल्पना कीजिए कि आप स्वयं भगवान् विराट है यह शरीर जो आपको प्राप्त हुआ है यह आपका संसार है और इस शरीर के मालिक या भगवान आप स्वयं है एवं इस संसार में आपको मुख के रूप में ब्राह्मण, भुजाओं के रूप में क्षत्रिय, उदर के रूप में वैश्य और पैरों के रूप में शुद्र प्राप्त हुए हैं! अब इनसे आपको इस संसार रूपी शरीर का संचालन करना है कैसे करेंगे ? अब आप कहे कि हम जातिव्यवस्था में विश्वास नहीं करते बल्कि सबको सामान दृष्टि से देखते है, कोई ब्राह्मण नहीं, कोई क्षत्रिय नहीं, कोई वैश्य नहीं, कोई शुद्र नहीं, अर्थात् सभी अंगो को सामान मानता हूं किसी भी अंग से कोई भी कार्य करा सकता हूं ! और तो और अब मैं अपने चरणों को यानि की शूद्रों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास करूँगा और ब्राह्मणों से वो कार्य करवाऊंगा जो आजतक श्रमशक्ति {शुद्र}द्वारा किये जाते थे! वैश्यों के कार्य क्षत्रिय करेंगे, क्षत्रिय के कार्य वैश्य से, अर्थात् सभी वर्णों को सभी कार्य का अधिकार होगा ! अब फिर से आप कल्पना करके बताएं कि आपके संसार रूपी शरीर की स्थिति क्या होगी ? वही स्थिति आज हमारे समाज की हो रही है उदाहरण लीजिए जब से आरक्षण आया है तब से हमारे चरण {श्रमशक्ति} जमीं से ऊपर उठ गए क्या मतलब निकला, चरणों का स्थान वाहनों ने ले लिया या नहीं। आज कितने व्यक्ति संसार में अपने पैरो का उपयोग करते है आवागमन में, अब पैरो का उपयोग केवल विशेष परिस्थिति में ही किया जाता है ताकि इन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो ! और तो और टी.वी.का चैनल बदलने के लिए भी पैरों को कष्ट देना उचित नहीं रह गया विकल्प के तौर पर अब हमारे पास रिमोट कण्ट्रोल जो आ गया है ! अब जब पैरों द्वारा श्रम ही नहीं होगा तो क्या होगा, मोटापा बढ़ जाएगा पेट बाहर निकल आएगा, मतलब संसार की सारी संपत्ति का वैश्य {उदर}संग्रहण तो करेंगे किन्तु वितरण नहीं होगा, वितरण क्यों नहीं होगा क्योकि श्रम नहीं हो रहा, अब बारी आती है ब्राह्मणों की यानि मुख की, क्या स्थिति है आज मुख {ब्राह्मण} की जितनी सफाई इसकी की जाती है शायद ही किसी अंग को इतना चमकाया जाता हो जितना चेहरे को चमकाया जाता है! सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भी इसी की है, क्योकि संसार रूपी शरीर के सञ्चालन में इसकी भूमिका सबसे अहम् होती है, क्योंकि निरन्तर जप तप एवं साधना द्वारा समाज के हित के लिए कार्य करना इनका मुख्य दायित्व था।
आप विचार करें बिना पैरो के शरीर जीवित रह सकता है, बिना हाथों के शरीर जीवित रह सकता है, किन्तु सिर को अगर धड से अलग कर दिया जाए तो कोई जीवित रह सकता है, कल्पना कीजिए महोदय! ऐसा है कि हम कोई समानता के विरोधी नहीं है सभी को समानता का अधिकार निश्चित ही प्राप्त होना चाहिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है किन्तु समानता का मतलब किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करना नहीं है ! आप ही बताइए आप अपने किस अंग से भेदभाव करते है, किसी से नहीं, क्योकि वे सब आपके अंग है ! ईश्वर द्वारा संचालित सृष्टि में सभी जीवों का गुण कर्म का विभाग गीता जी में भी वर्णित है।
अभी कुछ समय पहले एक पोस्ट फेसबुक और पेपरों में पढ़ रहा था उसमे एक सज्जन ने जातिव्यवस्था के बोला है और इसपर लिखा की ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण, क्षत्रिय का बेटा क्षत्रिय, ऐसा कैसे संभव हो सकता है, इस प्रकार तो डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, मास्टर जी का बेटा मास्टर यह तो गलत है, अब मै उन सज्जन से कहूँगा कि मान्यवर आप जिस व्यवस्था के अन्तर्गत बात कर रहे वह मैकाले की शिक्षा पद्धति के पश्चात् ज्ञान से प्रभावित है डॉक्टर, मास्टर जी है न कि सनातन व्यवस्था के, हमारे यहाँ तो वैद्य का बेटा वैध, सुतार का बेटा सुतार, लोहार का बेटा लोहार, सुनार का बेटा सुनार, ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण और क्षत्रिय का बेटा क्षत्रिय ही होता है ! उन्हें कुछ सिखने कही बाहर नहीं जाना होता अपितु अपनी परम्परा प्राप्त आजीविका का ज्ञान उसके DNA यानि संचित कर्म में रचा बसा होता है ! आवश्यकता है तो अपने वर्ण या जाति के गुणों को निखारने की क्योकि हीरे को जब तक तराशा नहीं जायेगा तब तक वह किसी के मुकुट की शोभा नहीं बढ़ा सकता। आजकल लोग नारे लगाने लगे है जाति पातीं की करो विदाई शायद ऐसा इसीलिए बोलने और करने पड़ रहे है क्योंकि अब परिवार विखंडित हो रहे है संस्कार, संस्कृति और धार्मिक आध्यात्मिक अनुष्ठान से लोग दूर हो गए हैं याद करे अभी से कुछ वर्ष पूर्व में जब हमारे विवाद आदि संस्कारों में आधुनिकरण के रंग नहीं चढ़े थे तब तक सभी जाति के लोग किसी न किसी रूप में एक दूसरे के सहयोग में सम्मिलित होते थे समरसता का दूसरा उदाहरण देखे तो कुम्भ आदि अवसरों पर समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग एक ही घाट पर स्नान करते रहें। आज जाति व्यवस्था समाज में समस्या क्यों बनी यह और अधिक विचार का विषय है इसे बुद्धिजीवी लोगों को चिन्तन करना चाहिए। आज के परिवेश में चल रही मनगढ़ंत बातों में आने से पहले अपने सनातन धर्म संस्कृति एवं परम्परा के विषय में हमारे ऋषियों द्वारा रचित एवं व्याख्यायित ग्रंथों एवं स्मृतियों का अध्ययन अवश्य करें क्योंकि हमारे ज्ञानाभाव के कारण ही हमें कोई भी दिग्भ्रमित कर सकता हैं। इस लेख को पढ़कर जिनका ज्ञान अपनी परम्परा के विषय में बढ़ा है वे अपने समाज में समझाए और जिन्हें कोई प्रश्न अथवा शंका हो वे हमें सुझाव दे सकते है। आप सभी का स्वागत है।

लेखक _ डॉ. अभिषेक कुमार उपाध्याय, मुख्य न्यासी श्री श्री 1008 श्री मौनी बाबा चैरिटेबल ट्रस्ट (न्यास) व गुरुकुल एवं मन्दिर सेवा योजना प्रमुख जम्मू कश्मीर प्रान्त।

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जीवन में हमेशा सच बोलिए, ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है!

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